आगम पृच्छा खण्ड

उपचारक स्वार्थी नहीं होता

किसी की पीड़ा को बार बार सुन कर उपचारक का ऊबना उचित नहीं, उसे उस पर करुणा करनी होती है । ऊबना यह सूचित करता है कि आप जीवन में अपने सुख की चिन्ता करते हैं । ५०००० गँवाने की पीड़ा कितनी तीव्र होती है, तब लाखों की हानि होने पर क्या बीतती होगी ? यदि पीड़ित अपनी पीड़ा दोहराता है तो उसका घाव भरने का उपाय अपेक्षित है । आत्मप्रेम आनन्द देता है और आत्मज्ञान शान्ति । आनन्द अपने से प्राप्त होता है और ज्ञान ज्ञानी से ।

अनेकान्त और स्याद्वाद

चेतन और अचेतन वस्तुएँ परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्मों के जोड़ों से मिल कर बनी होती है, अतः अनेकान्तरूप होती है।
अनेकान्त को समझानेवाली वचन प्रणाली को स्याद्वाद कहते हैं।

प्रत्येक वस्तु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक पहलुओंवाली कैसे हो सकती है?
इसे जानने हेतु निम्नलिखित दृष्टान्त है।

एक ही व्यक्ति बाप और बेटा दोनोंरूप हो सकता है।
पहले तो यह बात विरुद्ध लगती है लेकिन जब अपेक्षा समझ में आती है, तब विरोध दूर हो जाता है।
वह अपने बेटे की अपेक्षा तो बाप ही है लेकिन अपने बाप की अपेक्षा बेटा भी है।

यह ‘भी’ स्याद्वाद का मर्म है।
स्यात् = कथञ्चित् = किसी अपेक्षा से ऐसा है और किसी अपेक्षा से वैसा भी है।

वाद = बोलना अथवा बतलाना।
स्याद्वाद बोलने की वह पद्धति है जो आग्रहमुक्त हो कर दोनों पक्षों को उनकी अपेक्षा से स्वीकार करती है।
इसी कारण से स्याद्वाद को कहीं-कहीं अनेकान्तवाद भी कहा जाता है।

द्रव्य में नित्यपना और अनित्यपना दोनों हैं।
यद्यपि यह दोनों गुणधर्म एक दूसरे के विरोधी हैं, तो भी नयों द्वारा स्पष्टीकरण होने पर बात समझ में आ जाती है।
इसी का नाम स्याद्वाद है।

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