परिचय

जिन-शासन क्या है?

समणसुत्तं की गाथा क्रमांक २४ में लिखा है~

जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि य एत्तियगं जिणसासणं॥

तीर्थंकर परमात्मा के धर्म-शासन को जिन-शासन कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं कि हे जीव! जो तू अपने लिये अच्छा अथवा बुरा समझता है, वही अन्य जीवों के विषय में भी समझ ले; बस इतना ही जिन शासन है। सभी को अपना जीवन और सुख प्रिय होता है तथा, कोई भी प्राणी मरना अथवा दुःखी होना नहीं चाहता। बस इसी भावना को सबके प्रति आचरण में लाने का नाम जिन शासन है।


जम्मालीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं णंदउ जिणसासणं सुइरं॥११५॥


जिसका आश्रय लेनेवाले जीव अनन्त संसार को पार कर लेते हैं, सर्व जीवों के लिये शरणभूत वह जिन-शासन चिरकाल तक जयवन्त रहे॥

स्वाध्याय-मङ्गलाचरणम् 

अर्हन्तः श्रुतधारका गणधरा आचार्यवर्यास्तथा, वक्तारो जिनशासने त्रय इमे शास्त्रं तदीयं वचः।

अध्यात्मागमगूढतत्त्वविषयं स्याद्वादविद्यास्थितं, ह्यस्माभिः क्रियते तदीयविषया भक्त्या श्रुताराधना॥

अन्वयार्थ: (जिनशासने) जिनशासन में (अर्हन्तः) केवलज्ञानी, (श्रुतधारकाः गणधराः) श्रुतकेवली गणधरदेव, (तथा) तथा (आचार्यवर्याः) श्रेष्ठ आचार्य; (इमे) यह (त्रयः) तीन (वक्तारः) वक्ता हैं एवं (तदीयं) उनके (वचः) वचन (शास्त्रम्) शास्त्र हैं। यह शास्त्र (अध्यात्मागम-गूढ-तत्त्व-विषयं) अध्यात्म एवं आगम के गूढ़-तत्त्व को विषय बनाता है और (स्याद्वादविद्यास्थितं) स्याद्वादरूपी विद्या से सिद्ध अर्थात् सत्यापित होता है। (अस्माभिः) हमारे द्वारा (भक्त्या) श्रुत एवं आचार्य-भक्तिपूर्वक (तदीय-विषया हि) उस ही वाणी से सम्बन्ध रखनेवाली (श्रुताराधना) शास्त्राराधना (क्रियते) की जाती है॥

भावार्थ: जिनशासन में आगम-सिद्धान्त के अधिकृत वक्ता तीन हैं। प्रथम-वक्ता अर्हन्तदेव अर्थात् सर्वज्ञ-तीर्थङ्करादि हैं, द्वितीय-वक्ता सम्पूर्ण द्वादशाङ्ग-श्रुत के धारक श्रुतकेवली गणधरादि हैं एवं तृतीय-वक्ता उसी आगम-धारा के प्रवर्तक आगमचक्षु निर्ग्रन्थाचार्य हैं। सारांश यह है कि जिनशासन में परमेष्ठियों के पद पर विराजित केवली, श्रुतकेवली एवं परम्पराचार्य; इनकी श्रुत-परम्परागत वाणी ही शास्त्ररूप में स्वीकृत की जाती है। स्याद्वाद-विद्या अर्थात् सापेक्षवादी-शैली से यह जिन-शास्त्र अध्यात्म एवं आगम; इन दोनों द्वारा वस्तु के रहस्यमयी स्वरूप का निर्दोष अर्थात् पूर्वापर आदि दोषों से रहित प्रतिपादन करता है। हम लोग श्रुत-भक्ति एवं आचार्य-भक्तिपूर्वक उसी शास्त्र-वाणी की आराधना अर्थात् स्वाध्याय करते हैं।

० आदि-मङ्गलाचरण: (अल्पकाल में शिष्यों को शास्त्र-पारगामी बनाता है)

श्रुत-भक्ति एवं आचार्य-भक्ति करने के उपरान्त ग्रन्थकारकृत मङ्गलाचरण पढ़ते हैं।

० मध्य-मङ्गलाचरण: (स्वाध्याय के क्रम को अखण्ड रखता है)

श्रीजिनेन्द्रदेवाय नमः॥ जय बोलो जिनवर-वाणी की!॥ श्रीग्रन्थकर्त्राचार्येभ्यो नमः॥

० अन्त्य-मङ्गलाचरण: (विद्या का आनुषङ्गिक फल सातिशय पुण्य एवं मुख्य फल संवर-निर्जरा-मोक्ष देता है)

यस्मान्निजहितैषिभ्यो, धन्यवादः प्रदीयते। स्वाध्यायानन्तरं तस्माच्छास्त्र-भक्तिर्विधीयते॥

अर्थ: चूँकि अपना उपकार करनेवालों को धन्यवाद दिया जाता है, अतः स्वाध्याय के पश्चात् शास्त्र की वन्दना की जाती है अर्थात् श्रुत-भक्ति किंवा जिनवाणी की स्तुति की जाती है।

शास्त्र-पठन में मेरे द्वारा, यदि जो कहीं-कहीं, प्रमाद से कुछ अर्थ, वाक्य, पद, मात्रा छूट गयी।

सरस्वती मेरी उस त्रुटि को, कृपया क्षमा करें और मुझे कैवल्यधाम में, माँ अविलम्ब धरें॥

वाँछित फलदात्री चिन्तामणि-सदृश मात! तेरा, वन्दन करनेवाले मुझको, मिले पता मेरा।

बोधि समाधि विशुद्ध भावना, आत्मसिद्धि मुझको, मिले और मैं पा जाऊँ माँ! मोक्ष-महासुख को॥

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“आगमधारा का उद्देश्य प्रशंसा पाना नहीं हैं बल्कि जिनशासन का प्रकाश फैला कर भटके हुए जीवों के अंदर का अन्धकार हटाना और अपने हृदय मे केवलज्ञान का प्रकाश जगाना है।”

सभी प्राणीमात्र को गले लगाने वाले, केवल मनुष्य ही नहीं किन्तु संसार के प्रत्येक प्राणियों में भाई चारे का सन्देश देंने वाले, आपस में प्रेम सिखाने वाले, आत्मा को परमात्मा बनाने वाले ऐसे जिन मार्ग का पिछले ३२ वर्षो से अनुसरण करते हुए पूज्य जिनवाणी पुत्र क्षुल्लक श्री ध्यानसागरजी महाराज कठोरतम साधना सहज ही कर रहे है। 

आपके जीवन पर एक दृष्टिपात करें तो 
आपका जन्म भिलाई नगर में ९ अप्रेल, १९६३ चैत्र पूर्णिमा हनुमान जयंती के दिन एक वैष्णव परिवार में हुआ। पिता ‘श्री प्रेमचंद जी पंड्या’ जो एक स्वतंत्र सेनानी भी थे और माता ‘श्रीमती गीता देवी पंड्या’ थीं। आपका दीक्षा पूर्व नाम प्रकाश जी था। आपके परिवार में आपकी एक छोटी बहन, अनुज भाई एवं अपनी दादी के साथ आप भिलाई नगर में निवास करते थे।

बाल्यावस्था से ही आपका जीवन अनेक असाधरण घटनाओं से भरा हुआ है। बचपन से ही पशु पक्षी ,पेड़ पौधों से आपका विशेष लगाव एवं दिव्य करुणा और वात्सल्य पूर्ण सम्बन्ध रहा है। उनकी आभा में पहले से ही ऐसा प्रभाव रहा है, जिससे उनके संपर्क में आने वाले मूक पशु-पक्षी भी सुरक्षित महसूस करने लगते है। 

बचपन से ही आपको धार्मिक, आध्यत्मिक, करूणा और सकारात्मक नज़रिये से देखने का विस्तृत दृष्टिकोण प्राप्त है। आप एक विज्ञान के विद्यार्थी रह चुके है। आपने Government Medical College, रायपुर से MBBS की शिक्षा प्राप्त की। मूक प्राणी पर करुणाने ही आपके जीवन को वैराग्य की दिशा प्रदान की।

जीवन के उच्च लक्ष्य की प्राप्ति स्वरूप २२ वर्ष की कुमारावस्था में MBBS की पढाई छोड़कर आपने सभी सांसारिक सुखों और गृह-परिवार के मोह को त्याग कर आचार्य विद्यासागरजी के करकमलों से ८ नवंबर १९८५ को आहारजी में जैन साधुओं के लघू पद को धारण किया। आपको “ध्यानसागर जी” नाम से सुशोभित किया गया। एक बार भोजन करना, पैदल विहार करना, स्वाध्याय, ध्यान, जाप आदि आपकी दिनचर्या है। सर्दी-गर्मी जैसे हर प्रकार के ऋतू में आप केवल वस्त्र के खंड को ही धारण करते है।

दीक्षा उपरांत आपने ध्यान, योग, आत्मा इन विषयों पर गहन अध्ययन कर अनुभव के साथ प्राप्त किया है । संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाकी विद्वत्ता प्राप्त कर आपने आज अनेक संस्कृत, प्राकृत तथा हिंदी स्तोत्र और काव्यों की रचना की है । आप उच्च साहित्यकार के साथ साथ अद्भुत कवि भी है। संगीत में आपकी विशेष रूचि रही है।

जैन ही नहीं बल्कि अनेक धर्म और संप्रदाय के विद्वानों तथा साधकों से आत्म कल्याण, जीव दया आदि अनेक विषयों पर विशेष चर्चा की है। आप अपने वात्सल्यपूर्ण उपदेशों से बड़ों तथा बच्चों में प्रेम, भाईचारा और सच्चे आनंद की प्राप्ति का मार्ग बताने का प्रयास निरंतर कर रहे है ।

 

अपनी पीड़ा से पीड़ित हो आंसू सभी बहावें,
पर पीड़ा के आसूं जग में कुछ नैनों में आवै,
सुख बाटों तो दुगना होता, दुःख आधा रह जावे,
जो इस जग के आसूं पोंछे, संत वही कहलावें.





लेखन~
गुजराती, हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत एवं प्राकृत।


सम्पादित, अनूदित किंवा मौलिक रचनाएँ~
०१. जैसी करनी, वैसी भरनी (संकलन)
०२. शंका-समाधान, ज़रा सोचिये!
०३. शाकाहार-समाधान
०४. विराग-भावना
०५. अमृत-भारती
०६. भक्तामर-नवनीत
०७. जीवन-धारा
०८. मानतुंग-भारती
०९. इष्टोपदेश (अनुवाद)
१०. मांसाहार; ख़तरा-ए जान
११. नारी-दर्पण
१२. गुरु-शिष्य-दर्पण
१३. अविस्मरणीय भातकुली
१४. देवपुरी पार्श्व महिमा
१५. लाजवाब शाकाहार (अपूर्ण)
१६. भक्ति-सुमनांजलि
१७. बाल-शिक्षा (संग्रह)
१८. स्तोत्र-भारती (अप्रकाशित)
१९. स्वाध्याय-भारती (अप्रकाशित)
२०. मृत्यु-महोत्सव
२१. कैवल्य-चाँदणे (पूना के उपदेशों का मराठी अनुवाद)
२२. सामायिक-भारती
२३. मृत्युंजय स्तोत्र (अप्रकाशित)
२४. Unparalleled Vegetarianism (Incomplete)
२५. निर्वाणधाम स्तोत्र (अप्रकाशित)
२६. णव-देव-भत्ति (अप्रकाशित)
२७. वैराग्य-गीता (अप्रकाशित)
२८. विद्यासागराष्टकम् (अप्रकाशित)
२९. सिरि सीयलणाह संथवो (अप्रकाशित)
३०. त्रिनेत्रादीश्वर-पूजा
३१. जिणसासणसारो
३२. यजामहे पार्श्वनाथ स्तोत्र
३३. श्रीगोम्मटेश्वर स्तोत्रम्
३४. समवसरणाष्टक का अनुवाद
३५. सुप्रभात स्तोत्र का अनुवाद 

अनूदित ग्रन्थ, स्तोत्रादि

ध्वनि-मुद्रण~
०१. भज मन विद्यासागर (भजन, स्तुति, पूजा, जयमाला, आरती, कीर्तन)
०२. भातकुली (परिचय, पूजा, जयमाला, आरती)
०३. देवपुरी (मंगलाचरण, प्रातःप्रार्थना, पूजा, पंचकल्याणक के अर्घ्य, जयमाला, आरती, यजामहे-स्तोत्र, गुजराती भजन)
०४. भक्तामर-स्तोत्र (संस्कृत/हिन्दी पद्यानुवाद)
०५. कल्याणमन्दिर-स्तोत्र
०६. महावीराष्टक-स्तोत्र
०७. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र
०८. महावीराष्टक-स्तोत्र
०९. मेरी भावना
१०. बारह भावना
११. समाधि भावना
१२. भावना
१३. वैराग्य भावना
१४. समाधिमरण-पाठ
१५. ग़ज़ल-संग्रह (दुनिया बड़ी अजीब है, मेरे दिल में छाले अनेक हैं, जब काली रात अमावस की, ऐसी घड़ियाँ भी कभी, हज़ारों हैं फ़फौल-ए दिल, कौन है मेरा इस दुनिया में?, शीशे की तरहा, सोने के पिंजरे का पंछी, दर्द-ए दिल पूछो न हमारा, शीतलहर की रातों में, इंसाँ इंसाँ है)
१६. माँ का कलेजा
१७. सहा न क्या-क्या?
१८. लाख चुकाओ नहीं चुकेगा
१९. कानी माँ
२०. चाचा-भतीजा
२१. कैसे मनायें स्वर्ण-जयन्ती?
२२. कैसे मनायें जन्म-जयन्ती? २३. राम-कथा के गीत

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