काव्य एवं लेखन

देवपुरी पार्श्वजिन पूजा

दोहा

बावन पावन जिनभवन, नमन आदि जिन देव ।
पारस बाबा का करें , हम अर्चन स्वयमेव ।।

देवपुरी के पार्वजिनेश्वर, श्यामल-छवि अतिशयकारी,
दर्शन करके जानेवाले, भूल न पाते नर-नारी ।
न्हवन कराकर हम हर्षित-मन, प्रभु को निकट बुलाते हैं,
शुभ आह्वान, पवित्र स्थापना, सन्निधिकरण रचाते हैं ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वर ! पार्श्वजिनेश्वर !!
अत्रावतरावतर संवौषट् (आह्वानम्)
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वर ! पार्श्वजिनेश्वर !!
– अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वर ! पार्श्वजिनेश्वर !!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)

जन्म-रहित हैं, जरा-रहित हैं, मरण-रहित हैं आप यहाँ,
तीनों जग में अन्य सभीपर, तीन यही अभिशाप महा ।
अत: तीन धाराओं से हम, निर्मल-नीर चढ़ाते हैं,
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण से, तीन रोग मिट जाते हैं ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-रोग-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥

तप से भव का ताप मिटाकर, आप हये शीतल स्वामी !
शीतल और सुगन्धित चन्दन, नहीं आप सा जगनामी ।
चन्दन शीतल प्रभु अतिशीतल, सब संतापों को हरते,
चन्दन-चर्चन से जिन-अर्चन, इसीलिये हम भी करते ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय संसार-ताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥

जग के सारे पद नश्वर हैं, मिलते और बिछड़ते हैं,
तो भी मोही संसारी-जन, उनके लिये झगड़ते हैं ।
अत: सभी पद त्याग आपने, अद्भुत अक्षय-पद पाया,
अक्षत-पुंज चढ़ाते हैं हम, अक्षय-पद हमको भाया ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

रंग-बिरंगे भाँति-भाँति के, कोमल पुष्पों की माला,
निज-सुगन्धपर जो आकर्षित, कर लेती भौंरा काला ।
तव चरणों में अर्पित होकर, पुष्प धन्य हो जाते हैं,
ब्रह्मचर्य की कुछ सुगन्ध को, पूजक-जन भी पाते हैं ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय
कामवाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥

मिष्टान्नों से पक्वान्नों से, उत्सव लोग रचाते हैं,
खिला-खिलाकर, खा-खा कर भी, सबका मन बहलाते हैं ।
कवलाहार-रहित हे स्वामी ! यह नैवेद्य समर्पित है,
भूख हमारी भी मिट जाए, यही भावना गर्भित है ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

निर्मल-घृत का उज्ज्वल दीपक, अन्धकार को हरता है,
प्रतिमा में प्रतिबिम्ब पड़े जब, भक्त आरती करता है ।
लगता है तव ध्यान-अग्नि ही, घूम रही बनकर ज्वाला,
बचे कर्म को ढूंढ रही वह, अब कैसे बचनेवाला ? ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

धूपायन में धूप सुगन्धित, जब भी कोई खेता है,
उसका धूआँ स्पर्श आपका, पाकर भँवरे लेता है।
नाच-नाचकर मन्दिर में वह, धूआँ खुशबू बिखराता,
‘प्रभु-सम अपने कर्म जलाओ’, बिन बोले ही सिखलाता ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय कर्माष्टक-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥

सबसे उत्तम मोक्ष महा-फल, नाथ! आपने है पाया,
वह आध्यात्मिक लक्ष्य हमारा, भटकन से मन घबराया ।
सुन्दर-सुन्दर सहज सुगन्धित, ताज़े स्वाद-भरे प्यारे,
रस-पूरित फल ले करके हम, आए जिनवर के द्वारे ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय महामोक्ष-फल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥

निर्मल-नीर, सुशीतल-चन्दन,अक्षत-अक्षत, पुष्प, चरू,
उज्ज्वल-दीपक, धूप सुवासित, श्रेष्ठ-फलों का अर्घ्य करूँ।
अष्ट-द्रव्य का अर्घ्य-समर्पण, भक्ति-भाव का अर्पण है.
एक अलौकिक-दर्पण के प्रति, पूजा एक समर्पण है ।।
ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय पार्श्वजिनेश्वराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥

पंचकल्याणक
आये आनत स्वर्ग से, माह रहा वैशाख ।
कृष्ण द्वितीया थी तिथी, माँ ने पायी साख ।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।

पौष कृष्ण एकादशी, जन्मे श्री जिनराज ।
भव्य न्हवन को ले गया, सुरगिरिपर सुरराज ।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।


पौष कृष्ण एकादशी, दीक्षा ली जिनराज ।
परम दिगम्बर-रूप धर, हुये श्रमण सिरताज ।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तप:कल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।

कृष्ण चतुर्थी चैत्र की, अहिच्छत्र था स्थान ।
जीत महा उपसर्ग को, पाया केवलज्ञान ।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तोड़ कर्म का फंद ।
पाया गिरि सम्मेद से, शिवपद का आनंद ।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।

शान्तये शान्तिधारा *

पुष्पाञ्जलि: जाप्य : ।।
ॐ ह्री श्रीं क्लीं ऐं अहँ श्री देवपुरीपार्श्वनाथाय नमः ।।

जयमाला
पूजा कर जिनवर्य की, भक्तिभाव उर धार ।
जयमाला अर्पित करूँ, गुणमाला आधार ।।

पार्श्वजिनेश्वर ! दस जन्मों की, कथा आपकी है न्यारी
घोर उपद्रव सहा आपने, पाँच-पाँच भव में भारी ।
वैरी बनकर कमठ दुष्ट ने, विपदाएँ रक्खी जारी,
किन्तु आप हर बार रहे प्रभु! अचल क्षमागुण के धारी ।। १ ।।

अन्तिम भव में काशी जन्मे,तीर्थंकर होकर स्वामी !
ब्राह्मी माता और पिताश्री विश्वसेन राजा नामी ।
सक्षम होकर भी न आपने, राज-पाट को अपनाया,
यौवन में भी नाथ! आपको, तपश्चरण ही मन भाया ।। २ ।।

दीक्षापूर्व किसी दिन जलता, नाग-नागिनी का जोड़ा,
देख आपने संबोधन दे, उसे देवगति से जोड़ा ।
नाग बना धरणेन्द्र, नागिनी, देवी पद्मावती बनी,
लेकिन स्वामी! कमठ दुष्ट की, कभी आपसे नहीं बनी ।। ३ ।।

सात दिनों तक उस पापी ने, कंकड़-पत्थर बरसाए,
था प्रयत्न यह शत्रु हमारा, कष्ट भोगकर मर जाए ।
बाल न बाँका हुआ आपका, चलता था उपसर्ग जहाँ,
पत्नी-सहित उपद्रव हरने, तब आया नागेन्द्र वहाँ ।। ४ ।।

उठा एक ने लिया आपको, फना एक ने फैलाया,
आप ध्यान में लीन रहे प्रभु! केवलज्ञान तभी पाया ।
आत्मा से परमात्मा होते. केवल दो ने ही देखा,
सब देवों से भी सुन्दर थी, उनके कर्मों की रेखा ।। ५ ।।

मुनि-सेवा कर धन्य हुये वे, समवसरण तब बना महा,
वैरी भी तब भक्त बन गया, आप सरीखा अन्य कहाँ?
सर्वाधिक हैं तव प्रतिमाएँ, भारत में अतिशयकारी,
देवपुरी के पारस बाबा! तव महिमा भी है न्यारी ।। ६।।

श्यामल-सुन्दर परम-दिगम्बर, ध्यानमयी मूरत प्यारी,
गर्भालय के मध्य विराजित, अद्भुत पावन अविकारी ।
पलभर को तो सारे दर्शक, भूलें अपने दुख भारी,
मन्दिर के अन्दर की भगवन् ! है तरंग सचमुच न्यारी ।। ७ ।।

कहते हैं जो तीन पूर्णिमा, तव चरणों में कर जाते,
गुड़, मिश्री, धृत, श्रीफल अर्पण, करके इच्छित फल पाते
कैंसर जैसे रोग मिटे हैं, तव चरणों में हे स्वामी!
और कई धनवन्त बने हैं, भक्ति आपकी कर नामी ।। ८ ।।

आग्रह नहीं हमें यह सेवा, वैभव से भरपूर करे
और आपकी भक्ति हमारे, सारे संकट दूर करे ।
भव-भव में सब सुख-दुख हमने, कर्म-योग से हैं पाए,
जागी है अब यही भावना, भव-सागर से तिर जाएँ ।। ९ ।।

ॐ ह्रीं देवपुरीश्वराय श्रीपार्श्वजिनेश्वराय
जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ॥

जयमाला जिन पार्श्व की, भक्ति-भाव का सार ।
गुणमाला प्रभु की अतुल, कौन पा सके पार।।

।। इत्याशीर्वादः ।। ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ।।

आरती
आरती उतारो ! आरती उतारो!
आरती उतारो प्रभु पारसनाथ की
देवपुरीवाले बाबा पारसनाथ की,
देरोलजीवाले बाबा हो!
देरोलजीवाले बाबा पारसनाथ की ।।

नाथ! आपकी छवि में कोई, आकर्षण है भारी,
दर्शन पाकर हर्षित होते, सब दुखिया-दुखियारी ।
तव चरणों में दूर-दूर से होऽऽऽ…
तव चरणों में दूर-दूर से, आते जो नर-नारी,
मनोकामना पूर्ण यहाँ पर, होती उनकी सारी ।।
आरती उतारो !……. (१)

सप्तफना से शोभित मस्तक, श्यामल छवि हितकारी
पद्मासन में ध्यान-अवस्थित, शान्तमूर्ति मनहारी ।
बिन बोले भी प्रतिमा कहती होऽऽऽ…
बिन बोले भी प्रतिमा कहती, देखो सब संसारी!
जो अन्तर्मुख होता उसकी, मिट जाती लाचारी’ ।।
आरती उतारो !…..।। २ ।।

आज भाग्य-वश हमने पाया, मित्र परम-उपकारी,
जिसको पाकर शरणागत भी, शरण बने हितकारी ।
आप सरीखा दाता कोई होऽऽऽ…
आप सरीखा दाता कोई, कहाँ मिले दुखहारी?
हम हैं सेवक हर लो स्वामी! भव की पीर हमारी ।।
आरती उतारो!…….।।३।।

गोमटेश्वर स्तोत्र हिंदी

 

नील कमल की पंखुड़ियों सम, सुन्दर जिनके लोचन हैं,
मुखड़ा जिनका चन्द्र सरीखा, हर लेता सबका मन है।
करती जिनकी भव्य नासिका, चम्पक को भी लज्जित है,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥१॥

छाँव-रहित नित, स्वच्छ रहे जो, सबके मन को भाते हैं,
लटके जिनके कर्ण भुजा तक, जो अत्यन्त सुहाते हैं।
गज की सूँड़ समान भुजाएँ, जिनकी अतिशय शोभित हैं,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥२॥

जिनने अपने दिव्य कण्ठ से, दिव्य शंख को जीत लिया,
अतुल हिमालय तुल्य जिन्होंने, है विशाल तन प्राप्त किया।
जिनका निश्चल मध्यभाग भी, दर्शनीय है सुगठित है,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥३॥

विन्ध्याचल के उच्च शिखर पर, जो अत्यन्त प्रकाशित हैं,
विद्वज्जन के मध्य शिखामणि, जैसे होते भासित हैं।
आनन्दित करने त्रिभुवन को, पूर्ण चन्द्र सम शोभित हैं,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥४॥

मृदुल लताओं से है जिनकी, परिवेष्टित उन्नत काया,
भव्य जनों को लगता मानों, कल्पवृक्ष उनने पाया।
देवेन्द्रों के द्वारा जिनके, चरण-कमल भी अर्चित हैं,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥५॥

नग्न दिगम्बर हो कर भी जो, नहीं किसी से डरते हैं,
जो विशुद्ध हैं, अतः न मन से, प्रेम वस्त्र पर करते हैं।
जो सर्पादिक के छूने से, नहीं तनिक भी कम्पित हैं,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥६॥

आशा से जो नहीं देखते, स्वच्छ-दृष्टि धारक स्वामी,
सुख के इच्छुक नहीं रहे जो, दोषमूल नाशक नामी।
भरत-भ्रात पर शल्यरहित जो, दृढ़ विराग से रंजित हैं,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥७॥

जो धन-धाम-उपाधि रहित हैं, परम तपस्वी अविकारी,
साम्य भाव के जो धारी हैं, मोह और मद के हारी।
एक वर्ष तक उपवासी बन, खड़े रहे जो अतुलित हैं,
सर्वकाल वे गोम्मटेश प्रभु, मेरे द्वारा वन्दित हैं॥८॥

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